bharat desh par kavita in hindi

सबके गीत समान रे कबिता
हिंदू मुस्लिम सिख इसाई सब बाहर के नाम हैं,
सब के भीतर रमे हुए बस, एक सरीखे राम है।
सबको यही सिखाते भैया गीता और कुरान है,
मन के द्वार खुले हैं, फिर क्या हिंदू क्या इस्लाम हैं?
                      मंदिर प्यारा, मस्जिद प्यारी, प्यारी देवस्थान रे। 
                      सरगम चाहे अलग-अलग, पर सबके गीत समान रे...........
हर मानव को गले लगाकर पूछो मन की बात रे,
 सूखे उपवन को दे दो तुम सावन की बरसात रे।
 कांटो की पीड़ा पर रखो फूलों की मुस्कान रे,
 कलियों के घर पहुंचा दो तुम शबनम की सौगात रे।
 तितली प्यारी भंवरे प्यारे प्यारा हर उद्दान रे,
 सरगम चाहे अलग-अलग, पर सबके गीत समान रे....

मेरा घर सारा संसार हैं

मुझे मिली है प्यास विषमता का विष पीने के लिए,
मैं जन्मा हूं नहीं स्वयं हित, जग - हित जीने के लिए,
मुझे दी गई आग कि इस तम में मैं आग लगा सकूं,
गीत मिले इसलिए की घायल जग की पीड़ा गा सकूं,
मेरे दर्दीले गीतों को मत पहनाओ हथकड़ी,
                          मेरी दर्द नहीं मेरा है, सबका हाहाकार है,
                          कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है.........
मैं सिखलाता हूं कि जियो और जीने दो संसार को,
जितना ज्यादा बांट सको तुम बांटो अपने प्यार को,
हंसो इस तरह, हंसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,
चलो इस तरह, कुचल ना जाए पग से कोई शूल भी,
सुख न तुम्हारा सुख केवल, जग का भी उसमें भाग है,
                          फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का श्रृंगार है,
                           कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है........

संघर्ष ही जीवन है कबिता

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित,
 पर झांक कर देखो द्दगो में है सभी प्यासी थकित ।
जब तक बंधी है चेतना।
 जब तक ह्रदय दुख से घना।
 जब तक ना मांगूंगा कभी इस राह को मैं सही।
 सच हम नहीं सच तुम नहीं,
 सच है महज संघर्ष ही।
 अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना ।
अपनी नयन का नीर अपने आप हमको को पोछना।
 आकाश सुख देगा नहीं।

 धरती पसीजी है कहीं

मुस्कुरा कर चल मुसाफिर कबिता

याद रख जो आंधियों के सामने भी मुस्कुराते।
वे समय के पंथ पर पद - चिन्ह अपने छोड़ जाते।
चिन्ह वे जिसको ना धो सकते, प्रलय घन भी
मूक रहकर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते।
किंतु जो भी कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
जिंदगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर.......
कंटकित यह पंथ भी हो जाएगा आसान क्षण में,
पांव की पीड़ा क्षणिक  यदि तू कर अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख  क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर......।



मेरा घर सारा संसार हैं कबिता

मुझे मिली है प्यास विषमता का विष पीने के लिए,
मैं जन्मा हूं नहीं स्वयं हित, जग - हित जीने के लिए,
मुझे दी गई आग कि इस तम में मैं आग लगा सकूं,
गीत मिले इसलिए की घायल जग की पीड़ा गा सकूं,
मेरे दर्दीले गीतों को मत पहनाओ हथकड़ी,
                          मेरी दर्द नहीं मेरा है, सबका हाहाकार है,
                          कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है.........
मैं सिखलाता हूं कि जियो और जीने दो संसार को,
जितना ज्यादा बांट सको तुम बांटो अपने प्यार को,
हंसो इस तरह, हंसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,
चलो इस तरह, कुचल ना जाए पग से कोई शूल भी,
सुख न तुम्हारा सुख केवल, जग का भी उसमें भाग है,
                          फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का श्रृंगार है,
                           कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है........

शिष्टाचार की कविता
कोई मुझे सिखाना
 चाहता है शिष्टाचार।
 कोई कहता करूं मैं सबसे 
सदा विनम्र व्यवहार। 
      माना मेरी उम्र तो कम है, 
      पर मेरे कुछ सपने और गम है।
      पर उन्हें जानने की नहीं किसी को
      कभी भी फुरसत किसी भी क्षण है।
 मां कहती है डॉक्टर बन जा,'
पिता चाहेते व्यापारी होशियार।
किसकी मानूं किसको टालूं
फसा हुआ हूं मैं  मझधार। 
     अच्छा हो यदि मिल जाए, 
     मुझको इतना अधिकार।
     जी आए तो बनु कवि,
     खिलाड़ी या कलाकार।
 पढ़ने-लिखने के साथ-साथ ही,
 आप बताएं क्या हर्ज है ?
 बगिया में बैठे किसी पेड़ तले

 यदि खूब बजाऊँ गिटार।

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